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Sudhir Kewaliya

Abstract

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Sudhir Kewaliya

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धुआँ

धुआँ

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घबरा जाता हूं 

देखकर कहीं उठता हुआ धुआँ  

जानता हूं 

आग लगने पर उठता है धुआँ

कभी कहीं पेट की आग 

कहीं मज़हबी नफ़रत की आग।


ज़र, ज़मीन के कारण आग से

विनाशकारी ही साबित होती है

अक्सर खुद की लगाई यह आग

जो बुझाया न जाए इस आग को।


आग और धुआँ समेट लेते हैं

अपने में सब कुछ

मुट्ठीभर लोगों के न चाहने से

नहीं बुझ पाती है यह आग।


बिना आग के धुआँ नहीं होता 

बुझने के अहसास के बावजूद

दबी चिंगारियों से उठता रहता है

वक़्त बेवक़्त 

आग और धुंए के इस खेल में

गुम हो जाता है आम इंसान।


आग है तो धुआँ होगा ही

अलग होती है ये आग

रौशन करने वाली आग से

घबरा जाता हूं हमेशा 

देखकर कहीं उठता हुआ धुआँ।



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