मुसाफ़िर
मुसाफ़िर
अकेले ही
चलना होता है
इंसान को ताउम्र
पूरा करने को
एक निश्चित सफ़र
तमस से निकलकर
उजाले की ओर
पहेलीनुमा ज़िंदगी में।
मुसाफ़िर ही तो है वह
छोड़कर जाना है
उसे भी अपने
हर बीते लम्हे को
बनाकर याद
कुछ अपनों के लिए
उनकी ज़िंदगी में।
गुजरते वक़्त के साथ
काया, माया और साया
कुछ भी स्थायी नहीं है
जानकर भी यह हर इंसान
जाने क्यों हमेशा
परेशाँ रहता है 'सुधीर'
अपनी ज़िंदगी में।
