धरती रोती है!
धरती रोती है!
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बारिश की बूंदों में छिपी हर ख्वाहिश थी,
मधुर मिटटी की खुशबू से जगमग थी।
बूँद-बूँद से बनी मिटटी के कुछ सपने,
मैं और तुम बस अफसाने कुछ अपने !
गरजती बारिश ने जब भिगो दिया हर अंग रंग–ए–शोख से,
दिल की बातें समेट ली जबरन,खुद को ही रोक के,
फिर बरसात के पानी में निर्झर मैं भी बह जाता हूँ,
बूंद में छिपी उस तन्हाई संग कुछ दर्द बयाँ कर पाता हूं!
जब धरती रोती है ग़म के आंसू,मैं भी अपनी कलम उठाता हूँ।
बारिश के बादलों को उड़ते देख मैं , उन की कहानी उन्हीं की जुबां सुनाता हूँ।