धर्म और राष्ट्र
धर्म और राष्ट्र
धर्म और राष्ट्र !
काफी गूढ़ प्रश्न है ये,
किसे चुनोगे तुम?
सीमाओं से बंधे एक भूमि के टुकड़े को ?
या सदियों से तुमको बांधे हुए कर्तव्यों को ?
पर अगर देखेंगे हम इन्हें करीब से
और समझेंगे उनके गूढ़ रहस्यों को
हम पाएंगे राष्ट्र और धर्म एक ही हैं
सदियों से एक दूसरे से जुड़े हुए
ये हम हैं, जिन्होंने इन्हें बाँट दिया है।
राष्ट्रीयता को धर्म से काट दिया है।
वह धर्म नहीं है, अंधकूप है,
जिसमे राष्ट्रवाद की जगह नहीं।
जिसने तुमको पहचान दिलायी,
उस राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं।
ईश्वर-अल्लाह कैसे राष्ट्र से बड़े हुए ?
अगर अल्लाह तुमको रोज़ी बख्शता,
तो क्या यहीं राष्ट्र का कार्य नहीं?
अगर ईश्वर तुम्हारी रक्षा करत
ा,
तो क्या यहीं राष्ट्र का कर्तव्य नहीं?
पर आज परिभाषाएं बदलने की,
एक नई चाल चलाई जाती है।
अपने अधर्म और कायरता को,
राष्ट्र से ऊँचा कहने की, एक
नई परंपरा सिखाई जाती है।
उस माता को जिसके उदर पर चलना सीखा,
माता जिसने वक्ष का रक्त पीला तुमको सींचा।
उस भारत माता की जय कहने में,
गर्दन पर छुरी चल जाती?
तुम्हारे अल्लाह-खुदा बड़े हो गए,
माता की इज़्ज़त की करते नीलामी ?
एक बार भारत माँ के चरणों में,
अपना सर्वस्व लूटा के देखो तुम।
जिस ज़न्नत को मज़हब गढ़ता,
उससे बढ़ कर पाओगे तुम।
नाम, प्रतिष्ठा और आदर
कुछ भी ना अप्राप्य रहेगा।
हाँ ! सदियों तक भारत माँ के,
वीरों में तुम्हारा नाम रहेगा।