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Yashpal Singh

Abstract

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Yashpal Singh

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कोई अपना छूट गया

कोई अपना छूट गया

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एक सपना फिर से रूठ गया,

फिर से कोई अपना छूट गया,

हाँ, गलती आखिर मेरी थी

ये सपनो का संसार बसाया मैंने था


गैरों को गले लगाया मैंने था

वह छोड़ गया तो छोड़ गया

मैं उसको दोषी क्यों मानूँ ?

मैंने ही नहीं कभी इज़हार किया,

बस मन ही मन उसे प्यार किया।


वह गैर ही था, वह गैर रहा,

पर मेरे सपनों की फुलवारी में

उसके सिवा ना कोई और रहा।


काश, उसे मैं बतला देता,

ये हाल दिलों का जतला देता।

फिर शायद, सपना नहीं रूठता

वह अपना मुझसे नहीं छूटता।


ना जाने कितने सपने आते हैं,

गिर टूट मिट्टी में मिल जाते हैं।

हर टूटे छूटे सपने की 

अपनी भी एक कहानी है


कुछ को पा ना सका,

कुछ मुंह मोड़ गए,

जिन को अपना जाना,

वो मझधार में छोड़ गए।


पर दिल को आखिर कौन मनाये

फिर से ख्वाब सजाये बैठा है

नई उम्मीद जगाये बैठा है

एक राजा है, एक रानी है

अब फिर से वही कहानी है।


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