धरा का ऋण
धरा का ऋण
मित्रों एक सुनाती किस्सा,
जो कुछ वर्षों पूर्व घटा था।
बस थोड़ा ही ध्यान मेरा तब,
जीवन द्वन्द से जरा बंटा था।
बस आमों को खाते-खाते,
बेटी मेरी पूछ पड़ी थी।
आज अगर उस क्षण को मापूं,
जीवन की सर्वश्रेष्ठ घड़ी थी।
माँ! क्या सच ये गुठली आम बनेगी?
बस क्या था- फिर खेल-खेल में,
हमने वो गुठली बो डाली।
थोड़ा डाला पानी उसमें,
और फिर थोड़ी खाद भी डाली।
बारिश की बस एक झड़ी ने,
उसको जीवन दान दिया था।
उस गुठली ने बाँहें खोलीं,
मेघों को फिर नमन किया था।
मेरी गुड़िया चहक उठी थी।
मेरी बगिया महक उठी थी।
रोम रोम मेरा कृतज्ञ था,
धरती का पाकर उपहार।
ऋतुएँ बदली, मौसम बदला,
आया आमों का त्योहार।
आ
मों का मौसम आया है।
आमों से घर पटा पड़ा है।
इधर आम हैं, उधर आम हैं,
उफ, ये कितने किधर आम हैं।
इसको बाँटू, उसको बाँटू
कितने तोड़ू, कितने काटूँ।
बेटी चहकी, सेल्फी खींची,
पेड़ पे बैठते, आम बीनते,
टोकरी संग, खाते - खाते।
ना जाने कितनी सेल्फी खींची।
उफ वो कैसी सुखद घड़ी थी।
प्रकृति बाँह फैलाये खड़ी थी।
आखिर में हमने ये जाना,
ये धरती कितना देती है।
धरती-माँ कितना देती है।
एक बीज और सोच जरा सी,
ये दामन भर-भर देती है।
पेड़ लगाओ! पेड़ लगाओ!
बदले में बस ये कहती है।
मैंने तो सकंल्प कर लिया,
हर वर्ष कुछ पेड़ लगाकर
बच्चों सा उनको पालूँगी।
सम्भवतः इस तरह धरा का,
थोड़ा ऋण मैं चुका सकूँगी।