कविता आजकल
कविता आजकल
नसीब ने जो दिया उसे स्वीकार कर।
न अपनों से न ग़ैरों से तू तकरार कर।
ये अपने हैं जो दगा दिया करते हैं
मायूस न हो न चुप रह यूँ हारकर।
उम्र गुज़र जाती है भरोसा जीतने में
तोड़ न विश्वास बेक़सूर को मारकर।
ताउम्र औलाद पे भरोसा करते रहे
क्या मिला बेटों पे जान वारकर।
बेटी नहीं बेटे भी विदा हो जाते हैं
आती बहु घर में ज़ोर मारकर।
धीरे धीरे बहु सब छीन लेती है
माँ रोती रहती छाती फ़ाड़कर।
बहु के रूप में घर का भेदी आता है
*रेणू* सावधान रहो सब संभालकर।