आजादी की पूर्वसंध्या पर..
आजादी की पूर्वसंध्या पर..
कल फिर हम आजाद हो जाएंगे..
कल फिर खुशी के गीत, इंकलाब गाएंगे..
और परसों!
अंतर्मन की स्मृति रेखा से,
आहिस्ता से,
सरक जाएगा स्मरण कल का..
और हम!
मन, भावना, अंतर्मन और
विचारधाराओं की, गुलामी से जकड़े हम,
इंतजार करेंगे..
आजादी मिलने का,
अगले वर्ष तक..
ताकि फिर आए..
आजादी का स्मृति पर्व, यकीन दिलाने,
कि आजाद हो तुम!
पर सच है..
झूठा यकीन,
कब तक टिकता है!
'हम आजाद हैं'
की तख्ती लेकर,
हर आजाद,
मालिक की गुलामी करता है..
मालिक!
जो कभी दृश्य,
तो कभी है अदृश्य,
पर वो है तो..
या फिर..
शायद..
गुलामी के इस कदर..
अभ्यस्त हो गए हैं हम,
कि करते हैं..
शासक की खोज!
कभी हम उसे,
तो कभी शासक हमें,
ढूंढ निकालता है..
और फिर शुरू होता है..
एक अंतहीन..
सिलसिला..
वो हमें आजादी के, नए अर्थ समझाता है,
आजादी की ओट में,
गुलामी के नग्न नृत्य दिखलाता है..
और हम!
नग्नता को वस्त्र देने की बजाय,
करते हैं..
आभूषणों से सज्जित! नहीं!
परिहास नहीं है ये! आजादी का..
नवीन गीत है..
क्योंकि हम..
आजाद हो गए हैं ना!
आओ सबको बता दें.. कि तुम आजाद हो! क्योंकि..
आजादी के,
इतने वर्ष बाद..
ना जाने किसी को.. याद हो..
कि ना याद हो!
