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मिली साहा

Abstract

4.8  

मिली साहा

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दहेज की आग में जलती बेटियांँ

दहेज की आग में जलती बेटियांँ

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परंपरा के नाम पर क्यों करते हो नारी पर अत्याचार

विवाह एक पवित्र बंधन, क्यों करते हो इसमें व्यापार

बंद करो दहेज प्रथा, त्याग करो इस कुंठित सोच का

धन की खातिर क्यों उजाड़ रहे हो बेटियों का संसार।


माता पिता की लाडली बेटियांँ वो,क्यों ऐसा व्यवहार

बेटियांँ तो स्वयं लक्ष्मी का रूप, पूजे जिसको संसार

समय कितना बदल गया किंतु आज भी कई बेटियांँ

इस घृणित,संकुचित मानसिकता की हो रही शिकार।


झोंक देते हो आग में मांँ बाबा के दिल पर करते वार

किस बात की सजा ये,वो तो बस मांगे हैं थोड़ा प्यार

किसी के दिल के टुकड़े को, कैसे करते टुकड़े टुकड़े

क्या दया भी नहीं आती तुम्हें थोड़ा तुम करो विचार।


नाजों से पली नाजुक सी कली, है उसका भी संसार

किसी की बहन,बेटी है वो उसका जीवन नहीं बेकार

देता है प्यार की छांँव पिता बचाता उसे कड़ी धूप से

नाजों से पली बेटियों को क्यों देते आंँसुओं की धार।


धन के लालच में मासूम को पहुंँचा देते नरक के द्वार

कर देते इतना मजबूर कि ज़िन्दगी से मान लेती हार

कितने ख़्वाब आंँखों में सजाकर वो आती ससुराल

दहेज रूपी धन में लाती ढेर सारा प्यार और संस्कार।


जिसके एक आंँसू पर, दुःखी हो जाता पूरा परिवार

छीन लेते ख़्वाब उसकी आंँखों के, कैसा ये व्यवहार

दौलत के तराजू में तौल कर बेच देते हो इंसानियत

छीन लेते हो क्यों बेटियों से जीने का भी अधिकार।


चंद सिक्कों के लिए बेटियों पर ना करो अत्याचार

दहेज की आग में जलती वो बेटियांँ कर रही पुकार

क्यों मांगते हो दहेज, बेटों को इतना सक्षम बनाओ

किसी की बेटी को जलाने का मन में न आए विचार।


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