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चेतना प्रकाश चितेरी , प्रयागराज

Abstract

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चेतना प्रकाश चितेरी , प्रयागराज

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हे संध्या रूको!

हे संध्या रूको!

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हे संध्या ! रुको !

थोड़ा धीरे – धीरे जाना

इतनी जल्दी भी क्या है ?

लौट आने दो!

उन्हें अपने घरों में,

जो सुबह से निकले हैं

दो वक्त रोटी की तलाश में,


मैं बैठी हूँ अकेली,

ना सखियाँ, ना कोई पहेली,

छुप – छुप के मैं तुम्हें 

अपनी खिड़की से देखती हूँ,

सोचती हूँ __ क्षणिक है तुम्हारा है यौवन,


अस्त हो रही हो!

मस्त बैठी थी,

ले रही थी अंगड़ाई,

सकुचाई आंखों से देख रही थी चौतरफा,

पड़ी दृष्टि जब मेरी मार्तंड पर ,


हे गोधूलि!

लुका छिपी खेलने लगी ,

तेरी मुग्धा छवि से कैसे बच पाते,

स्वभाव धर्म जो ठहरा चित्रभानु का,

प्रियतमा हो! उनकी

यह मान बैठी मन में,

संगिनी बन धीरे – धीरे साथ में ढल रही हो!

कितनी सच्ची है तुम्हारी निष्ठा

दे रही हो प्रणय का बलिदान

पावन हो ! शुचिता तेरी रग रग में,

अच्छा जाओ! मुझे भी याद आ गया,

हैं कुछ मेरी नैतिक मूल्य,

पूरा कर लूँ ,सोची कुछ देर__

साझा कर लूं, 


हे सांझ! 

तुमसे मन के उद्गार भाव,

नहीं है समय किसी के पास,

जो मुझे सुन सकें,

अच्छा लेती हूँ तुझसे अलविदा

दब गई मेरी व्यथा मेरे अंतर्मन में

चेतना की है विवशता।



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