डुबाया किसने
डुबाया किसने
विचरण है ये विहंगम है
रात दिनों भर बहती रहती
यही है प्रेम का संगम है
कल-कल छल-छल
करती बहती रहती कभी
न रुकना ही जीवन है।
पावन जल अर्पण करना
ही दुनियाँ को ये मनोरम है
जो रिश्ता है रात से इसका
वही रिश्ता दिन से हरपल है।
नदी को है डुबाया किसने
पानी को है भिगाया किसने
दुनिया की हर बुराई को लेकर
पानी रहता सदा ही निर्मल है।