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Rabindra Mishra

Abstract Others

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Rabindra Mishra

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डोर

डोर

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ये जीवन एक नाटक है

जिस नाटक पे सिर्फ हम

अपनी अदा निभाते हैं

सही हो या गलत

नेक हो या घटिया

सुख हो या दुख,

हमारे बस की बात नहीं

क्योंकी, इस जीवन का डोर

तो और किसीके हात में है ।1।


जिंदगी एक खेल है

जिस खेल में हम बस

एक हिस्सा ही तो है

जहां पे खड़े कर दिए

उसीका फ़र्ज़ निभाते हैं

कभी आगे-कभी पीछे

कभी ऊपर तो कभी नीचे

बेहबास दौड़ते हैं-कुओं की हुइसिल जो

और किसीके होंठ पे है ।2।


जीवन चलने का नाम है

सुबह से शाम तक हम

बस चलते ही रहते हैं

बिना रुके, बिना थकान

पीछे मुड़कर दिखने का वक्त भी नहीं

बस आगे ही आगे पेर

निरंतर बढ़ता रहता है

उस मंज़िल को पाने की उम्मीद लेकर-पर नतीजा

तो और किसीके कलम पे है ।3।


आदमी हम बस पुतले हैं

जो किसी और के इशारे पे

वही खेल दिखाते हैं

चाहे दिल जुड़नेवाल्

हो या दिल तोड़नेवाला

प्यार के परवाने या

कहर की ढूंडलाहट

उस उंगलियों के हिलने से नाचते है- क्योकी,

डोर जो और किसीके हाथ में है ।4।


इस धरती की रंगमंच पर

हम सुब काठ के पुतले

खुद कुछ करते हैं

ना कुछ कर पाएंगे

पर्दा उठेते ही अपना

तमाशा दिखाते रहते हैं

कभी तालियाॅं तो कभी जुते की हार

कुओं की बटन किसी और के हाथ

जो पर्दे की पीछे डोर पकड़ कर बैठे हैं ।5।


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