चलता हूँ !
चलता हूँ !
बेरंग जिंदगी के अंजान मोड़ पर,
अक्सर अब तन्हा चलता हूँ।
पीछे रहता है सन्नाटा ,
अंदर हजारों इंसा बिठाए चलता हूँ।
धुंधली सी राहों पे,
खुली आंखों में पलकों तले सौ ख़्वाब दबाए चलता हूँ।
ताश की इमारत सा बिखरा हूँ खुद में,
खुद को समेटे चलता हूँ।
छुपाकर जख्म सवालों के,
झूठी हँसी को लपेटे चलता हूँ।
हटाकर चोचले भिड़ के,
खुद ही खुद को सम्मान दिए चलता हूँ।
उठाकर सिर खुद के बल पे,
खुद ही खुद का स्वाभिमान लिए चलता हूँ।
मरोड़कर गालियां अपनो की,
उन्हें किनारे फेंक चलता हूँ।
जलता देख भीड़ को मुझसे,
नजरों को सेक चलता हूँ।
निचोड़कर तकलीफें सारी,
नाकाम कर हर एक कोशिश तेरी देख जिंदगी चलता हूँ।