चलो उड़ चले
चलो उड़ चले
किस कहानी का ज़िक्र करूँ मैं
जब अल्फ़ाज़ ही गुमनाम है,
समझ सको तो समझो मेरी ख़ामोशी
जो आवाज़ से अनजान है।
क्यूँ क़ैद हो शब्दों के जाल में,
जब खुला आसमाँ तुम्हें पुकारता है,
हँस कर देखो तो सही उस सूरज की तरफ़
जो हर सुबह तुम्हें निहारता है।
पलकें तो खोलों, मीलों नया मंज़र है,
खोल दो वो हथेली,
जिनमें ना अब कोई रंजिश है।
आज़ाद परिंदो सा काग़ज़ पर उड़ चले,
चाहे लोग चील सी नज़रों सा मुझे पढ़े।
क्यूँ सुने वही क़िस्से जो बीत चुके हैं,
क़लम पुरानी है तो क्या हुआ,
ख़्वाब तो है अभी भी नए।