मेरा प्रतिबिम्ब
मेरा प्रतिबिम्ब
दायरों में सिमटी ज़िन्दगी
आज चहकना चाहती है
हँसी जो रास्ता भूल गयी थी
फ़िर से दस्तक दे रही है।
क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद
थिरकने लगते हैं
ख़ामोशी में भी
नज़्म सुनायी देती है।
आजकल पर्दे नहीं शर्माते,
धूप की चिलचिलाहट से
ना जाने क्यूँ ज़ुल्फ़ें
हवाओं की दोस्त बन बैठी है।
बारिश ने तो मेरी
हथेलियाँ छूयी है
फ़िर क्यूँ ठंडक मेरी
धड़कन को हुई है।
आज क्यूँ शोर में
मेरा नाम सुनाई देता है
मेरा रूठा प्रतिबिम्ब आज क्यूँ
सबकी नज़रों में दिखाई देता है।।