चक्रव्यूह रचती जिन्दगी
चक्रव्यूह रचती जिन्दगी
जिन्दगी की राहें उलझी है
एक चक्रव्यूह की तरह
पोखरे में पानी स्वच्छ है
पर फैली ऊपर जलकुम्भी की परत है।
साँस लेना भी दूभर है
शायद प्राण वायु की कमी है
स्पंदन शक्ति भी शिथिल है
अंतर्मन में यादें बर्फ सी दबी है।
क्या कोई भी निदान नहीं
इस मर्ज की किताब नहीं
धर्म अलग चीख रहा है
क्या जीवन का और वितान नहीं।
सूखा बरगद तन्हा है
बस गिद्धों को ही भाता है
गुलमोहर बस जलता है
कल्पवृक्ष अभी नन्हा है।