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ca. Ratan Kumar Agarwala

Abstract

4  

ca. Ratan Kumar Agarwala

Abstract

चिट्ठी

चिट्ठी

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380

काश वापस आ जाता फिर से, चिट्ठियों का वह दौर,

चिट्ठी आने पर पुरे घर में मच जाता था शोर।

करते रहते थे सभी दरवाजे पर, डाकिये का इंतजार,

लाता था डाकिया जब चिट्ठी, तभी मिलता था अपनों का समाचार।

 

शादी का निमंत्रण हो कोई या फिर कोई प्रयोजन, आती थी घर में चिट्ठी,

रहता था महीनों इंतजार, जाने कब आएगी किसी की चिट्ठी।

अपनेपन की लिखी होती थी बातें, मिलता था दिल को सुकून अपार,

चिट्ठी से मिलते थे, सारे आयोजनों के सही समाचार।

 

कभी कहीं जब होता था मातम, चिट्ठी से ही तो सब जान पाते,

गमगीन हो जाता था माहौल, बड़ी कष्ट भरी हो जाती थी रातें।

महीनों बीत जाते थे, पर अपनों से न होती थी बात,

अजीब अजीब से विचार मन में आते, यूँ ही बीत जाती थी रात।

 

चिट्ठी में लिखी इबारतों में, झलकता था भेजने वाले का अपनापन,

नहीं आती चिट्ठी जब कई कई दिन, मन में भर जाता था सूनापन।

जब आती थी चिट्ठी घर में, लेकर खुशियों की सौगात,

चहक उठता था घर आंगन, होती रहती थी चिट्ठी की ही बात।

 

मीलों तक चल कर आती थी, करती थी गांव शहर की सैर,

चलती रहती पर थकती न थी यह, जबकि होते नहीं थे पैर।

कई कई दिन पड़ी रहती लाल डिब्बे में, जब तक न निकाल लेता डाकिया,

अपने अंदर छिपा कर रखती, जाने कौन कौन सा बाकया।

 

कभी आती बहन की राखी, कभी स्नेह भरी सब बातें,

पढ़ते थे बड़े चाव से, जैसे हो रही आपस में मुलाक़ातें।

कभी माँ देती थी चिट्ठी में उलाहना, कि क्यों नहीं आया घर,

पढ़कर चिट्ठी कभी कभी, बहते आँखों से आँसू झर झर।

 

चिट्ठी की जगह ले ली अब व्हाट्सप्प ने, पर न मिलता वह अपनापन,

यादों की धरोहर थी चिट्ठी, अब फ़ैल गया अजीब सा सूनापन।

भाषा की लग गयी बाट, बातें भी हो गयी शॉर्टकट,

न मिलता वह अपनापन बिन चिट्ठी के, भावों ने खो दी गर्माहट।

 

चिट्ठी से जुड़ जाते थे दिल, अब तो फ़ैल गयी महज औपचारिकता,

कभी कभी तो चिट्ठी की बातों से, हो जाती थी बड़ी भावुकता।

अब भी जब पढ़ता हुँ कभी, सहेज कर रखी सब चिट्ठियां,

याद आ जाती कब कब की बातें, बीते दिनों की सब रवानियाँ।

 

चिट्ठी पढ़कर हो जाती अब भी, यादों की सुहानी सैर,

चिट्ठी से मिल जाती हमें, सभी अपनों की खैर।

चिट्ठी की बातें पढ़कर अब भी, दिल हो जाता भावों से विभोर,

काश वापस आ जाता फिर से, चिट्ठियों का वह पुराना दौर।


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