चिंतन
चिंतन
एक पल जरा रुकना है,
कुछ अब चिंतन करना है,
कब तक खोये रहेंगे,
उस झूठी शान में,
खुद से खुद को तनहा करते,
इस नए अभिमान में,
कहाँ पहुँच गए हम सब,
कहाँ ये समाज है,
पतन के इस दौर में,
क्यों खुद पर नाज़ हैं,
जब सब में खुदा विराजे,
तो कैसा ये भाव है,
जो देता केवल नफरत
और बिखराव है,
क्या दयनीय स्थिति के
हम भी जिम्मेवार नहीं,
क्या कुछ सींचे हम सब ने भी,
कभी खरपतवार नहीं,
कभी मौन से, कभी वाणी,
कभी विचारो से,
बस बोते ही चले गए,
कुछ असमझे से कंटक,
आज वही कुछ शूल बन
बस दर्द दिया करते हैं,
फिर क्यों न हो जाए
कुछ आत्म विवेचन,
और ले प्रण
बदल देंगे हम ये धरा,
रहना यही सब धरा का धरा,
खाली हाथ ही आये थे,
बस खाली ही जाना है,
बस बीच के इस सफर में,
वसुधा ही जगमगाना हैं,
चले फिर नींव से आरंभ करें,
मिल सब आज बच्चों के
व्यक्तित्व गढ़े,
गीली मिट्टी से वो प्यारे,
सांचे में ढल जाएंगे,
जैसा चाहे वैसा ही,
हम सब उन्हें बनायेंगे,
फिर गढ़ते हैं नींव नव समाज की,
कर प्रारंभ बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण की,
आओ सब अपनी जिम्मेवारी निभाते हैं,
भूल हर भेदभाव अब सुसंस्कारी
संतान बनाते हैं,
कुछ वाणी, कुछ कहानी,
कुछ आचरण से सिखाते है,
भूले समाज को पुनः
आज नई राह दिखाते हैं।।