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LOKESH PAL

Tragedy

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LOKESH PAL

Tragedy

चीखें

चीखें

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सोचने पर मजबूर नहीं करती वो चीखें

पर हवस के सुरूर में चीखें सुनती किसे

अब तो लोग सो गए है रातों के अंधेरो में

पर दरिंदा तो दरिंदा ही होता है

आगोश में वो वहशीपन का अँधा होता है


घटनाएं घट जाती है, हैवानियत हो जाती है

जब मिलते है सबूत हैवानियत के

तब उस दरिंदे की हैवानियत नज़र आती है

गाँव में, कुछ कस्बों में तो आवाज़े

आयी ही नहीं

गायब हो गयी वो बेटियाँ, कभी पायी ही नहीं

हमेशा के लिए खत्म कर दी गयी कलियाँ

उन बागों की

लोगो को लगता कुछ हुआ ही नहीं


मायूसी के उस माहौल में पूछ कर देखना

कभी उस माँ से

मायूस होकर चल रही होंगी उसकी सांसें

क्या फिर भी सोचने पर मजबूर नहीं करती

वो चीखें

पर हवस के सुरूर में चीखें सुनती किसे

किसी की बेटी थी वो, किसी की बहन थी वो

जिसका बलात्कार हुआ है


सो रहा है वो कानून उस कानून के रखवाले

पता उन लोगो को भी क्या हुआ है

मजबूर हुए बांध कर राजनीति की बागडोर में

ये सब देखकर लग रहा है जैसे

आज हमारे देश के सम्मान का

उस भारत के अभिमान का

और हमारे संविधान का बहिष्कार हुआ


क्या कहूँ ए राजनीति के पखवाड़ों में रहने वालों

तुम को सोचने पर मजबूर नहीं करती वो चीखें

पर हवस के सुरूर में वो चीखें सुनती किसे

क्या तुम को सोचने पर मजबूर नहीं करती वो चीखें

                                         



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