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Damyanti Bhatt

Classics

4  

Damyanti Bhatt

Classics

छंद

छंद

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आज हिमालय सूख रहा

घट रहा नदियों से नीर

 हरियाले उत्तराखंड 

हो गयी धरती खंड विखंड


ये सत्ताधारी भी

चप्पल जैसे होते हैं

साथ तो देते

पीछे कीचड उछालते


घर के बाहर

एक नहीं कई घर हैं जिनके


इनकी देखा देखी

सतियों के सत घटे

तपस्वियों के तप घटे

गायों के दूध घटे


इनके वादे झूठे

इनसे रिश्ते झूठे

निभायें क्या ये

इनपे भरोसे झूठे


हिमालय ऋद्धि देता

सिद्धि देता

चारों धाम जिसके गुण गान

वही हिमालय सिसक रहा है


सदा जीता है जो

वो हार रहा


उसको मानव अंध दिख रहा

उसके मन मैं द्वंद चल रहा


शिव गौरी का निवास हिमालय

 ढका रहता हिम से

उसे देख कालिदास ने

मेघदूत लिखा


रंग ढंग

प्रकृति का

 हिमालय से प्रेम पुनीत लिखा


उडते बादल

मेघ मल्हार

प्रियेसी के नैन कटार

नाभि कचनार

होंठ मकरंद


हिमालय को हिमालय ही लिखा

तरल तरूण मृग देश लिखा

जीता जागता जुगराज

गंगा का उद्गम

पुण्यपुनीत

हरियाली पग पग मीत लिखी

तेरी महिमा 

वेदों की रीत लिखी


हरे भरे वनों मैं

मादक हिरणी

रस भरे वृक्षों पर 

मधुप मकरंद दिखा


आज दहक रहा दावानल

मैंने मन का उबलता द्वंद लिखा


इंसानों ने

सब लूट लिया

 मन दहल गया

इंसान खुद मिट जायेंगे

जब जब प्रकृति के रूप बिगाडेंगे

प्रकृति अपने रूप मैं

फिर वापस आ जाती है

नयनों के नीर से

मैंने हर छंद लिखा।


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