छिपे जज्बात
छिपे जज्बात
शीशे टूटते रहते हैं.. तुम्हे गम क्यों है
बिखरे काँच को समेटते हुए आँखे नम क्यों है
ठहरो जरा... आंसुओँ को बह जाने दो
तुम्हारे आँसू, तुम्हारी खामोशियाँ चुभते हैं मुझे
तुम्हे जरा भी इल्म नहीं,मेरी बैचैनी का
खुल कर बोलो ना..... इतने चुप क्यों हो
ये घुटी -घुटी सी जज्बात को निकाल बाहर करो
मुश्किल होती है बहुत .. तुम्हे बेजार देख कर
तुम्हारी नाराजगी को मिटाना चाहती हूँ
एक आशियाना सुकून का बनाना चाहती हूँ
गर तुम साथ हो, तमाम मुश्किलों से गुजर जायेंगे हम
हमदर्द, हमसफ़र और हमसाया बनकर रहेंगे हम
यकीन कैसे दिलाऊं, तुम्ही दर्द हो.. तुम्ही आराम हो
तुम्ही..तो .मेरी खुशियों से भरा जाम हो।