चांदनी का घूंघट
चांदनी का घूंघट
चांदनी घूंघट डाले मन्द मन्द
मुस्कुराती
कल कल करती कोई सुन्दरी
चली आ रही है
कमर पर सुनहरी रशना से सुशोभित
होती
अपने ही भाव में बिना बंधन के चूनर
डाले बही जा रही है।
न जाने किसे ढूंढ रही है आकुल
मीनों के संग
अनवरत बढ़ती चली आ रही है
हवा की तरह
शायद और कोई सहारा नहीं है
किनारा नहीं है
ठहरने का कहीं भी इसे नहीं मिल
रही ढूंढ़ने पर भी जगह।
क्या करें लाचार, विवश, मर्यादा की
दीवार
प्रियतम की अभिलाषा में आंसू लिए
सिमट कर
अपने अनथक पांवों के बजती हुई
पंजुल को सनती सुनाती
चली जा रही है किसी को कुछ नहीं
बताती ठहरकर।।
दोनों अधरों को एक दूसरे का सहायक
बनाए
सूर्य की विद्युत के सहारे चमचमाती हुई
हंसती रोती
मानो मीठी पीड़ा का अनुमान कर रही है
पगली
न जाने किसका सौम्य स्वभाव धारण की
खोई रहती।
हाँ जानता हूँ बोल नहीं सकती संकेत से
बताती है
प्रियतम के पास जाना है इसीलिए बेचैन
होकर
अस्थिर गति से जा रही है सारी सुध बुध
भुलाए
मात्र एक धन की चाह में अपना सारा धन
खोकर।

