चांद
चांद
आधा चांद पुरे सच को छिपाकर धरा पर दिवारें खड़ी कर देता है
सामने न देखकर हजारों मील दूर तुम्हें देखकर इन्सान खुद को बांट लेता है।
सुना है धरती का ही एक अंग सदियों पहले टूट कर अलग हो गया था
आज चमकता है उधार के उजाले से, रात के अंधेरे में दिन को काट लेता है।
तेरी ठण्डी रोशनी खून में गर्मी भर कर उजालों को अंधेरों में खींच कर
एक दीमक की तरह इन्सान ही इन्सानियत को धीरे धीरे चाट लेता है।
कैसी है ये बंदरबांट किस ओर से उस्तरे की धार तेज हो रही है
कैसे चेहरा साफ करते करते उस्तरा अपनी धार के लिए गले छांट लेता है।
सूरज की तपिश से किसी को कोई मतलब नहीं,दिन ब दिन बढ़ रही है
एक बीज कभी बौद्धिवृक्ष हुआ था , कैसे हो आज पहले ही काट लेता है।
हाथ जुड़े या फैले क्या फर्क है, अंजुली का आकार तो एक ही है
दण्डवत हो या घुटनों पर, जाने क्यूं यहीं आकर अपने पैर काट लेता है।