चाँद तक सपनों का सफ़र
चाँद तक सपनों का सफ़र
सफ़र कई किए हैं
पर मेरे सपनों का सफ़र
अनजाने रास्ते,
अनजानी डगर
सपने, उफ्फ ! ये सपने
जाने बचपन से ही पीछे पड़े हैं।
थोड़े अजीब से,पर वही साथ खड़े है
चांद पर बैठ कर तारों की सैर
देखने की ख्वाईश बैठ कर वहीं से
कैसी दिखती है दुनिया मेरे बगैर
चमकीली रोशनी का दरिया
और एक अज़ीब सा नज़रिया।
सब अपने अपने में मशगूल है
किसी और की सोचना फिजूल है
आपाधापी में कौन किसको पूछता है
खो जाऊंगा तो कौन मुझे खोजता है।
फ़िर अचानक से मां आके जगाती है
प्यार भरी झिड़की देकर याद दिलाती है
उठ लेट जो हुआ तो डांट खाना होगा
और तू दुखी तो आखिर दर्द मुझे होगा।
फ़िर सपनों से निकल ख्याल आया
अगली बार माँ तू भी चलना
तेरे बिना क्या चांद, क्या सैर
सच कुछ भी नहीं मैं तेरे बग़ैर।