चाहूँ भी तो कैसे
चाहूँ भी तो कैसे
चाहूं भी तो कैसे , यकीन हो जाये तुम्हें
कश्मकश है जिदगीं की , कुछ ख्वाहिशें हैं तुमसे
यूं तो एक पल भी नही गुजरता बिन तेरे , तेरी यादे हैं अमानत मेरी ।
चाहूं भी तो कैसे , भरोसा आ जाये मुझ पे
ये दिन -रात , वक्त के साज बेमजा है बिना तुम्हारे
चारो तरफ फैली तेरी महक ,तुम हो मेरे आसपास जैसे।
चाहूं भी तो कैसे , ऐतबार आ जाये तुम्हें
बंदिशें हैं जमाने की , ये रस्म और रिवाज की शर्तें
ये फासले और दूरियां , दुनियादारी की बातें
चाहूँ भी तो कैसे , हो जाये यकीन तुम्हें ।
समय की सतह पे तेरी यादो के बुलबुले
वो प्यारभरी निशानियां , वो तुम्हारी बाते
सबकुछ भूलकर भी याद आ जाती हैं तेरी
सुबह मे शबनम से बिखरी यादें
चाहूँ भी तो कैसे , यकीन आ जाये तुम्हें ।
ये आलम , ये मौसम , सारी कायनात में बिखरे पड़ी हमारी कहानी ।
कुछ अधूरी है और कुछ पूरी , इस कदर ये इश्क कामिल हैं
चाहूं भी तो कैसे , ऐतबार हो जाय मुझ पे
इंतेहा हो गई इम्तिहान की , यूं न मुझे आजमाओ ।
आइने मे सिर्फ तेरा ही अक्स नजर आता हैं
ये निगाहें तुम्हें ही देखना चाहती हैं , बंद आंखों के ख्वाब हो तुम
आसमां से जमीं तक हैं तेरे रंग ।
चाहूं भी तो कैसे , यकीन आ जाये तुम्हें।