चाहत!
चाहत!
तुझे ना चाहने की मेरी चाहत ना कभी पूरी हुई
कौन सा इकलौती ख़्वाहिश थी जो ना पूरी हुई !
कितने ही क़दम बढ़ा के देख लिए तेरी जानिब
न जाने क्यों ना कम दिलों के दरमियाँ दूरी हुई !
पूरा होना ना लिखा था मोहब्बत की तक़दीर में
किसी के साथ आधी और कहीं यह अधूरी हुई !
ना आओ जो ख़्वाब में, नींद मुकम्मल होती नहीं
गोया यह भी कोई लत है जो इतनी ज़रूरी हुई !
सिर्फ़ रूठे हुए होते तो बे-शक मना भी लेते तुम्हें
हमसे तो तमाम उम्र ना किसी की जी-हुज़ूरी हुई !
जानिब: ओर, तरफ़; दरमियाँ: बीच;
मुकम्मल: पूरी; जी-हुज़ूरी: हाँ में हाँ मिलाना