चाह
चाह
ना चाह है उसे तक़्तो ताज की
ना चाह है उसे हीरों जवहारात की
ना चाह है दुनियादारी की।
जिसका स्वरूप इतना कोमल
जो जन्म देती है।
जो हमें पालती है, दुलार करती है
रुठ जाने पर मनाती है।
हर दुःख के वक्त खड़ी रहती है
बस अन्त तक
अपने बच्चे को चाहती है।
हम कहते हैं माँ।।
