बूढ़ी मां की पुकार
बूढ़ी मां की पुकार
हर एक दुख सहा मैंने,
तुम्हें इस दुनिया में लाने को।
मेरे आंचल की हमेशा छांव रही,
बच्चों तुम्हें हर तकलीफ़ से बचाने को।
खुद गीले बिस्तर पर सोती रही,
सूखे में तुम्हें सुलाने को।
हर पग पर तुम्हारे साथ रही,
हर ठोकर से तुम्हें बचाने को।
मेरे रहते डरती थी बलाएं,
तुम तक आने को।
ठंडी रोटी तक मैंने कभी,
न दी थी तुमको खाने को।
आज मेरे वृद्धा होने पर,
फेर लिया तुमने भी अपनी नज़रों को।
बचा न अब सहारा कोई,
किस्मत की इस मारी को।
दर-दर की ठोकरें खाती हूं,
थोड़ा सा सम्मान पाने को।
बूढ़ी हो गई अब मैं बच्चों,
अपने ही शरीर से हारी हूं।
वृद्धाश्रम ही छोड़ दो मुझको,
जो तुम पर इतनी भारी हूं।