जीवन स्त्री का
जीवन स्त्री का
जीवन स्त्री का नहीं है आसान,
कभी मां, कभी बेटी तो कभी पत्नी बनकर,
एकसाथ जीती रूप हज़ार।
कभी पति की सेवा में,
तो कभी बच्चों की परवरिश में,
बीत जाता है इनका सारा जीवन।
जब ये उड़ सकतीं हैं,
खुले आसमान में तो,
फिर क्यों रखते हैं हम इन्हें बंधी बनाकर।
स्त्री के दुर्गा रूप की करते हैं हम पूजा,
तो फिर बाकी औरतों को,
क्यूं करते हैं सरे बाजार नीलाम।
एक स्त्री भी तो है,
हमारे जैसी ही इंसान,
तो फिर हम क्यूं करते हैं इन पर अत्याचार।
स्त्री की कोख से,
जन्म लेने के बाद भी,
न जाने क्यूं पुरुष समझता है खुद को प्रधान।
ए' मानव! अगर तू अपनी मां के,
दूध का कर्ज़ है चुकाना चाहता,
तो स्त्री के साथ यूं अन्याय को बंद कर।
स्त्री को भी हक है,
अपने हिसाब से जिंदगी जीने का,
तो तू उनके पर को मत काट।