बूढ़ा
बूढ़ा
चौराहे पे अक्सर
चुपचाप
एक कोने में,
बेहद शांत
टूटे चश्मों मे
धुंधली नजरों के साथ,
एक बूढ़े को
रोज गाड़ियों के शोर शराबे के बीच
खड़ा देखता हूं।
वो एक सूखा दरख़्त सा
दिखता है,
जिसकी टहनियां
समय के थपेड़ों में
सूख गई हैं और
जड़े जो दूर दूर तक फैली थी कभी
अब सिकुड़ कर
ढेर सी हो गई है।
वो हाथों में
बुढ़ापे की छड़ी लिए
बस टुकुर टुकुर
इधर उधर देखता रहता है,
जाने इस भीड़ में
क्या खोजता/ढूंढता रहता है,
माथे पे बुढ़ापे की झुर्रियां
हाथों में कंपन
अपने अंतिम मगर उपेक्षित दौर में
वो अब भी
बस अपनों को ही याद करता है
कभी फूट फूट कर रोने लगता है,
उसकी सारी जवानी
खप गई
जिनके ख्वाबों को पूरा करने में,
उनकी एक एक जरूरतों
के लिए
वो भागता रहा ताउम्र,
समय को भी उसने
कोई भाव नहीं दिया
उसे यूं ही जाने दिया
उसे उन दिनों में रुसवा किया,
और उसे फुर्सत भी कहां थी
सांस लेने की,
वो बस उनके लिए
कोल्हू के बैल की तरह
जुटा रहा,
पर अब जब समय
पलटी मार
आगे बढ़ गया,
उसे उसकी हालत पर
चौराहे पे खड़ा कर गया,
तब हंसता भी है समय
जोर जोर से
उसकी ये हालत देखकर,
जिनके लिए
ठुकराया तूने मुझे
देख वो तुझे ठग कर
आगे बढ़ गए,
अब तू बस
बोझ है
उनकी नजरों में
जिसे अब तुझे ही ढोना है,
वो नहीं चाहते
तुझे किसी हाल में भी,
वो समय को हाथों में बांधे चलते हैं
बस अपने लिए
जीते हैं,
वो बेचारा
जीर्ण शीर्ण
झुके कांधे लिए,
थका हारा
सर झुकाए
उसी चौराहे पे
बस अपनों की याद लिए,
रूआंसा सा खड़ा
रोज मिलता है,
बस टुकुर टुकुर
आते जाते लोगों को
बड़ी आस से
देखता रहता है।
