बस्ती
बस्ती
आलिशान मकानों के बीच
मैली अंधेरी एक बस्ती
जहाँ एक ओर ऐशोआराम
वहीं दूसरी ओर तड़प भूख की
फटे सिले कपड़े धुलने के बाद
सूखाए जाते है लकड़ियों के ढेर पर
यहाँ ईटों का रंग उड़ा हुआ है
टपकती हैं बारिश में छत भी
गंदगी से भरा पानी का बहता नाला
मन को बेचैन करती गंध उसकी
दिनभर की थकान के बावजूद
बस्तीवालों पर अपना असर न छोड़ पाती
खूँटी से बंधे जानवर
आँगन में मिट्टी से खेलते बालक
कुत्ता भी जहाँ निश्चिंत सोता
और बँटता सब में निवाला बराबर
एक तरफ चेहरे की झुर्रियाँ
उनके हालातों को बयान करती
वहीं चैन और सुकून से भरी
नींद भी बड़े अच्छे से आती
रहते है यहाँ इन्सान ही मगर
क्या यह इन्सानों की बस्ती है कहलाती ॽ
कैसा विपर्यास, यह न्यायशीलता कैसी
एक जैसी क्यों नहीं हम सबकी बस्ती ॽ