खिड़कियों का शहर
खिड़कियों का शहर
इस शहर में बसते हैं
जिंदा मुर्दे जो चलते हैं
भावनाशून्य अपनी ही धुन में
अलग कहानी अपनी सुनाते हैं
होंठों पर मुस्कान है इनके
कड़वाहट कोने में दिल के
कैसे हो विश्वास इन पर
कदम जिनके हर बार बहके
इनसे संभल गई हूँ थोड़ी
इंसानों की यह भीड़ निगोड़ी
बिछाके सपनों का जाल सुनहरा
करती सब पर कैसी मोड़ी
खुद को अब समझा दिया
मन का दरवाजा बंद किया
रहना यहाँ अब मुनासिब नहीं
खिड़कियों का शहर देख लिया।
