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Dr Jogender Singh(jogi)

Tragedy

4.7  

Dr Jogender Singh(jogi)

Tragedy

बर्तन काँच के

बर्तन काँच के

1 min
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टुकड़े चुभे काँच के, नश्तर से अभी / अभी !!

एक बर्तन काँच का, फिर टूटा अभी / अभी !!

नया नहीं यह मंज़र, नया हादसा भी नहीं !!

टूटने का सिलसिला चल रहा सालों से !!

बापू की डाँट पर, जवाब दिया था पलट कर,

घर का सारा सामान उलट / पलट कर !!

जब घर छोड़ दिया था मैंने,

तब बापू के भीतर एक बर्तन टूटा था,

विश्वास का, जज़्बात का !! उसी चुभन से रिस रिस कर,

साँसें थम गयी थी, बापू की !!


माँ जब दुहाई देती रही दूध की अपने,  

गंगा सी धार आँखों से उसकी बही थी !!

न जा लाल मेरे, बार / बार कही थी !!

मैं उठा कर झोला निकल गया था !!

न सुनी गिरने की आवाज़, न आह सुन पाया था।

हाँ मैं कई बर्तन विश्वास के तोड़ आया था !!


तोड़े जाने के सिलसिले को फिर आगे ले गया मैं,

जब तुम्हें बेवफ़ा कह गया मैं।

उस चुभन को तुम्हारी, तुम्हारी तड़प को,

अब समझ पाया।

रुला कर कोई,   अब  मुझे चला गया !!



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