बोन्साई -2
बोन्साई -2
मन की
बंजर दरारों में
एक बीज
जो खेल खेल में
तुमने बोया था
अब कुछ कुछ
बोन्साई सा
बन गया है।
यूँ तो
बहुत जतन से
संजो कर रखती हूं
तुम्हारे बोन्साई को
सींचती हूँ
तुम्हारी बातों से
यादों से
मगर इस पर
आते आस के कोंपलों को
समय
तोड ले जाता है
हरबार।
उन दुख से भीगे
सदियों जैसे
पलों में
बोन्साई के हर
घाव को
सहलाते जब
देखती हूँ
उसके अस्तित्व को
संपूर्णता में
तो समझाती हूँ
खुद को।
समय का
कोंपलों को
चुराना जरूरी है
पेड़ बनना
बोन्साई की
किस्मत
नहीं होती।

