भूख

भूख

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दरवाजे पर खड़ा भिखारी

बार-बार

हर बार

बस एक ही वाक्य दोहराए जा रहा था

ऐ माई कुछ खाने को दे दे

यजमान कुछ खाने को दे दे

उसकी ये खुश्क तेज आवाज

चीर रही थी धनिया का दिल और

भिगो रही थी पारो की आंखें

क्योंकि रात बच्चे सोए थे भूखे

और

आज सुबह भी जैसे

भूख ही लेकर आयी थी उसके द्वारे,

घर के बाहर और घर के अंदर

एक ही चीज समान थी

और वो थी भूख

भूख और सिर्फ भूख।

फर्क था तो बस यह कि

एक मौन था और दूसरी में

दर्द भरी तेज आवाज थी,

दोनों ही लाचार थे,

एक दूजे से अनजान थे

बाहर वाला यह नहीं जानता था कि

अंदर वाला उससे भी बुरी हालत में है,

बस वह बेचारा देवा

बेबस चिल्ला भी भी नहीं सकता था।

दर्द बाहर भी था,

दर्द अंदर भी था

भूख इधर भी थी

भूख उधर भी थी

लाचारी इधर भी थी

बेगारी उधर भी थी

यह कुछ और नहीं थी

बस गरीबी थी

गरीबी थी

और

गरीबी थी ।।


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