भूख से बेजार साँसें
भूख से बेजार साँसें
माना कि हर तरह के लोग हैं इस जहान में
किसी ने खड़ी कर दी गगनचुम्बी इमारतें
तो कोई जमीन पर पड़ा तकता आसमान
न सिर पर छत हैं और नहीं हैं दीवारें।।
फटेहाल कपड़ों से तन को ढंकने की कोशिश
पथराई सी दो आँखें और शरीर भूख से बेजार
हर सहर हर पहर है सिर्फ कुछ रोटियों की तलाश
नहीं रखते कोई ख्वाहिश, बस पेट भरने की दरकार।।
मैंने कई दफा उन्हें भूखे सोता देखा है
भरी महफिल के किनारे खड़े देखा है
लिये दिल में आस कि शायद कुछ उन्हें भी मिल जाय
कोई तो ऐसा दिन या रात हो कि उनका भी पेट भर जाय।।
अंदर लोग लगा रहे हैं बात-बात पर ठहाके
पेट है भरा और प्लेट भी है ऊपर तक भरा
खया तो खाया नहीं तो यूँ ही छोड़ आते हैं
और फेंके हुए पकवान डस्टबीन की शोभा बढ़ाते हैं।।
जलसा खत्म होते ही खुशी-खुशी सब लौट जाते हैं
प्लेटों में बचे हुए खाने को आदमी कूड़े में फेंक आते हैं
यह देखते ही भूखे गरीब लोगों की आँखें चमक जाती हैं
और फिर शुरू होती है जद्दोजहद भूख को मिटाने की।।
वो रोटी के उस आधे बचे टुकड़े से अपनी भूख मिटाता है
और इतने में ही वह छप्पन भोग का स्वाद पा जाता है
काश उन्हें भी हर रोज भरपेट भोजन मिल पाता
पकवान न सही पर पर वो अपनी भूख तो मिटा पाता।।
