बहते जज्बात
बहते जज्बात
अक्सर मेरे आँसुओं को
तुम नज़रंदाज़ कर देते हो,
और स्वाभाविक भी है !
रोज़ रोज़ जो पानी की
तरह बहा दिया जाए,
उसकी अहमियत
कहाँ रह जाती है !
सब जानते हैं पानी की भी
अपनी कीमत है,
मगर उसका मोल
तभी समझ आता है,
जब चुकाना पड़ता है।
हाँ एक और हालात में !
जब ढूँढे भी नहीं मिलता
दूर तलक।
तब समझ आता है वो
सिर्फ पानी नहीं,
जीने की वजह थी।
कुछ ऐसी ही कहानी है
इन आँसुओं की भी,
जब निर्झर बहते रहते हैं,
तो कोई मौका नहीं छोड़ता
इन्हें अविरल बनाने का।
कोई बाँध नहीं बाँधता,
इन पर रोक लगाने को।
फिर एक दिन ये
दरिया सूख जाता है।
पथरीली सी बंजर
आँखें मौन हो जाती हैं।
जो कभी भरी रहती थीं,
छलकने को तैयार।
अब वहाँ वीरानियाँ बसती हैं।
जो रुलाई कभी दर्द तो
कभी खुशी को जुबान देती थी,
वो अब अपना रास्ता बदल रही है।
तीर बनकर चुभने को तत्पर,
वो बाहर निकलने को तड़प रही है।
अब अनदेखा नहीं कर
पाओगे उन जज्बातों को,
जिन्होंने लफ्जों में
ढलना सीख लिया है।
कमज़ोर तो वो आँसू भी न थे,
बस पानी की तरह
हर रंग में घुल जाते थे।
अब ये जो उनका स्वाद
जुबाँ पर चढ़ गया है,
खारे से कुछ कड़वा हो गया है।
तीखा बनकर तुम्हारे दिल को
पार भी कर जाए तो
बुरा मत मानना।
क्योंकि नजरअंदाज तो
तुम उस मौन भाषा को
भी करते थे।
कुछ बदला है तो इतना ही कि
वो तुम्हें तड़पाते नहीं थे और
ये जो नई मौखिक भाषा है ना !
थोड़ी तीखी, थोड़ी मीठी,
थोड़ी नमकीन सी।
तुम चाहो न चाहो
दिल के पार उतर जाएगी।
मेरे जख्मों पर
मरहम लगे न लगे,
पर उस हर काँटे की
चुभन तुम्हारे नाम कर जाएगी।
और यह स्वाभाविक भी है !
