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दवा दारू

दवा दारू

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कहते हैं पीते थे लोग पुराने जमाने में भी

मदहोश हुआ करते थे, बेहोश नहीं।

स्त्रियों की इज़्ज़त करना कभी भूलते नहीं थे

गँवाकर अपने पूरे होश भी।


दारू उनके लिए नशा नहीं था

दवा थी वो, पीना कभी बेवजह नहीं था।

बड़े-बड़े झगड़े भी जाम से टकरा कर निबट जाते थे,

कितने अनजान भी महफ़िल में करीबी बन जाते थे।


हर रात सारे भाई संग बैठ कर झूम लेते थे,

बेटे एक जाम के बहाने पिता की सारी बात सुन लेते थे।

न स्मार्ट फोन थे न ही नेटवर्क की कनेक्टिविटी की चिंता,

कभी सुना नहीं कि कोई बुरी लत से बन गया हो चिता।


अब पीने पिलाने का अर्थ ही बदल गया,

आदमी रिश्तों से बहुत आगे निकल गया।

कभी जश्न कहकर तो कभी दिल टूटने पर पीता है।

लत बना लेता है जैसे पीने के लिए ही जीता है।


अब महंगी से महंगी दारू का मोल है,

बेशक रिश्तों में बहुत बड़ा झोल है।

महफिलों में भी खुद को अकेला खड़ा पाते हैं,

दो घूँट पीते ही मर्यादा भूल जाते हैं।


अब खुद ही पीना और खुद ही सम्भलना है,

पहले पीकर जीते थे लोग, अब पीना ही मरना है।

ये दवा नहीं अब जहर पीते हैं लोग।

जिंदगी नहीं, बस दूसरों को दिखाने के लिये जीते हैं लोग।


अति तो अच्छे की भी बुरी है,

दारू भी कहाँ अब खरी है।

ऐसा तो नहीं कि इसे अपनाना मजबूरी है,

बस याद रखना हद में रहना बहुत जरूरी है।


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