मुसाफ़िर
मुसाफ़िर
अक्सर राह चलते दो तरह के लोग मिल जाया करते हैं,
एक वो जो सिर्फ मुसाफ़िर होते हैं,
और दूसरे वो जो मंजिलों के मुरादी होते हैं।
वो जो मुसाफ़िर होते हैं न!
वो राह के हर रंग को जी लिया करते हैं,
शरबती रंग के हर अनुभव को मीठा कर पी लिया करते हैं।
वो थकते भी हैं तो उठकर फिर चल पड़ते हैं,
ज़िंदगी की उलझनों से भी कुछ यूँ ही लड़ पड़ते हैं,
फिर कदम बढ़ाते हैं, चाहे मंज़िल आँखों से ओझल होI
मंज़िल न भी मिले तो वो रोने नहीं बैठते,
अपने आँचल को आँसुओं से भिगोने नहीं बैठते।
सफ़र कैसा भी हो, वो चलते रहना जानते हैं;
राह में मिले हर हमसफ़र को अपना ही मानते हैं,
फिर वो! जो दूसरे किस्म के लोग होते हैं न!
वो चलते ही रहते हैं,
थक भी जाएँ तो मंज़िल की ओर बढ़ते ही रहते हैं।
मंज़िल तक पहुँचकर ही दम भरते हैं,
राह चलते कुछ पाने का अरमान भी कम करते हैं,
पर अंत समय में उनके पास एक काश रह जाता है,
सफर में सब खोकर क्या ही पास रह जाता है।
फिर सोचते हैं ये कैसी होड़ थी!
क्या पाया पता नहीं, पर इसने कमर तोड़ दी;
रास्तों के हमराही हों या मंज़िल के पुजारी,
ज़िंदगी की जंग सबने (मृत्यु होने पर) जीत कर भी हारी,
बस मुस्कुरा कर जो ज़िंदगी का जहर पीना सीख गया,
समझो सही मायनों में वही ज़िंदगी के हर पल को जीना सीख गया।
