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बचपन कहीं खो गया

बचपन कहीं खो गया

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वो बेख़ौफ बचपन कहाँ खो गया

वो रेत के टीले बनाना, वो दीवारों पर मिट्टी चिपकाना।

वो नहरों में गोते खाना, वो पेड़ों से फल चुराना

बुशर्ट पहनकर इतराना, पतंग के पीछे दौड़ लगाना।


वो भाइयों के खिलौने लेकर भाग जाना

फिर उनका मेरी चोटी खींचकर वापस लाना

वो सुनहरा बचपन कहाँ खो गया।


एक दूजे से लड़कर चोट खाना

फिर मम्मी से जाकर शिकायत लगाना।

वो खुले आंगन का शहतूत का पेड़, उस पर झूला टंगवाना

गुदगुदी करके पैरों में, किसी को झूले से गिराना।


हाथ पैर टूटे और ऊपर से धमकाना

शिकायत न करने को रिश्वत खिलाना।

बहुत याद आता है बचपन सुहाना

ये सब अब विरला कर्म हो गया

सुहाना सा बचपन कहाँ खो गया।


खेलकर काले भुनभुनाते सने रेत में घर जाना

माँ के हाथों दो चांटे भी खाना।

खुले आंगन मे नंगे नहाना

पानी की अटखेलियों से पंछी बनाना।


वो छप छप की आवाज़, वो कोयल की कूकू

चिड़ियों के संग वो सीटी बजाना।

वो यादें बनी पर समय न रहा

वो चंचल सा बचपन कहाँ खो गया।


याद आता है हर पल हर लम्हा सुहाना

बिखरकर सिमटना बहुत हो गया।

अब धर्म,जाति,लिंग की दीवारें हैं दरमियाँ

वो पुराना जमाना कहीं खो गया।


सही और गलत, बुरा और भला का है अलग पैमाना

रिश्तों का नही अब कोई ठिकाना।

बस जीते है जाना, बस चलते है जाना

वो मासूम बचपन कहाँ खो गया।


लगता है भीतर कहीं सो गया

कैसे जगाऊँ उसे फिर से, कैसे जी लूँ वो सारे पल।

कैसे मिटाऊँ इंसानों के दरमियाँ बढ़ता जा रहा दंगल

कहीं अभिमान कहीं पैसा सब छीन रहा है।


और बचपन अपनी सीखों के साथ लाचार दीन खड़ा है

बड़ा होकर जिंदगी का हर सबब खो गया

वो निश्छल सा बचपन कहाँ खो गया।


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