भारत माता की व्यथा
भारत माता की व्यथा
ओढ़ निराशा का आँचल जो, क्रंदन को मजबूर हुई
विवश उसी भारत माता की व्यथा सुनाने आयी हूँ।
छंद लिखें कितने कवियों ने, अधर, नयन, मुख, गालों पर
रुदन नहीं क्यों लिख पाये वो, रिसे पाँव के छालों को।
मौन हुए भारत के जन, निर्धन की निर्धनता पर
दुबके रहे घरों के भीतर, झांके नहीं विवशता पर।
मैं अबोल माँ के जायों की, पीड़ा गाने आयी हूँ
विवश उसी भारत माता की, व्यथा सुनाने आयी हूँ।
अफरा -तफरी मची हुई है और अभी हाँ और मिले
शानों शौकत, गाड़ी, बंगला, धन दौलत पुरजोर मिले।
दिन ढलते ही जा मदिरालय, रूप रसों का पान करें
घुँघरू ठुमकों में रम कर वो, यौवन का गुणगान करें।
असली सूरत उनकी जन-जन को दिखलाने आयी हूँ
विवश उसी भारत माता की, व्यथा सुनाने आयी हूँ।
रिश्वतखोरी, सीनाजोरी, ये सब बातें आम हुई
मजहब चला बैर के रस्ते, अच्छाई नाकाम हुई।
दुनियां भले चाँद पर पहुँची, शिक्षा बन्द ठंडे बस्ते में
महँगाई ने रोटी छीनी, रक्त बहा है सस्ते में।
कितना और अभी सोओगे, जगो जगाने आयी हूँ
विवश उसी भारत माता की, व्यथा सुनाने आयी हूँ।