नहीं मुझे यूँ छल कर जाते
नहीं मुझे यूँ छल कर जाते
अधरों के अनुबंध अधूरे,
हृदय अधर में छोड़ गए क्यों।
आस अधूरी भर पलकों में,
नहीं मुझे यूँ छल कर जाते।।
सखी मुझे वो कह कर जाते ..
हृदय टीस उठता है उस पल ,
विरह ज्वाला जब जिया जलाए।
पीड़ा किससे कहे प्रेयसी,
विवशताएँ उर सह न पाए।
छल विद्या को मैं नहीं जानूँ ,
मैं मतिमन्द प्रेम की मारी।
अकुलाहट में इत उत घूमूं,
तड़पूं निसदिन मैं बेचारी।
अनायास ही अब नयनों से,
अविरल आँसू बहते जाते।
आस अधूरी भर पलकों में
नहीं मुझे यूँ छल कर जाते ।।
सखी मुझे वो कह कर जाते ..
प्रहर निशा के बीते जगकर,
उदित दिवाकर मुझे सताए।
साँझ चिढ़ाकर हाय लौटती,
उथल पुथल मन मे कर जाए।
नेह तनिक उनका मिल जाता,
विरह वेदना मैं सह लेती।
किंचित प्रेम दिखा देते जो,
मैं अपने मन की कह लेती।
माना उनको जाना ही था ,
अधर अधर से छू कर जाते।
आस अधूरी भर पलकों में,
नहीं मुझे यूँ छल कर जाते।।
सखी मुझे वो कह कर जाते ...
गए प्राण संग लेकर साजन,
शेष देह ही बाकी है अब।
प्रथम मिलन की मधुस्मृति ही,
पूंजी पास बची मेरे अब।
टूट रहा है बाँध धीर का,
गए कहो क्यों दूर साजना।
धूल धूसरित खंडर मन है,
स्वप्न हुए सब चूर साजना।
एक बार तो चलते- चलते,
आलिंग्नबद्ध ही कर जाते ।
आस अधूरी भर पलकों में,
नहीं मुझे यूँ छल कर जाते।
सखी मुझे वो कह कर जाते ..