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Namita Sunder

Abstract

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Namita Sunder

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बदरी और बिटिया

बदरी और बिटिया

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हां, छायी तो सावन

की काली घटायें

देर तलक मंडराईं भी

मेरी संकरी ऊंची छत पर

खूब लगाये चक्कर मेरे शहर के

पर, बरसी नहीं।


लबालब आंसुओं से

भरी आंखों से

खोजती रहीं वो

ड्योढ़ी पर की निबिया


अंबुआ की बगिया

कजरी के बोल

मेंहदी की खुशबू

झूलों की पेंग

हरी चुड़ियां

पायल की छमक।


फिर कस कर

भींच अपने होठ

पी कर सारी बारिश

भीतर ही भीतर

उड़ गयी दूर बहुत दूर।


पहाड़ों, जंगलों के

निर्जन देश में

और लग कर गले

एक एक पेड़ के

एक एक पहाड़ी के


ऐसे हिलक हिलक रोई

जैसे अम्मा- बापू के

न रहने के बाद

पहली बार

मायके की देहरी

छू के लौटी बिटिया।


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