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बारिश, बदरी, बिटिया

बारिश, बदरी, बिटिया

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हाँ, छायी तो सावन की काली घटायें

देर तलक मंडराईं भी

मेरी संकरी ऊंची छत पर

खूब लगाये चक्कर मेरे शहर के

पर, बरसी नहीं।


लबालब आँसुओं से

भरी आँखों से

खोजती रहीं वो

ड्योढ़ी पर की निबिया

अंबुआ की बगिया

कजरी के बोल

मेंहदी की खुशबू

झूलों की पेंग

हरी चुड़ियाँ

पायल की छमक।


फिर

कस कर भींच अपने होंठ

पी कर सारी बारिश भीतर ही भीतर

उड़ गयी, दूर बहुत दूर

पहाड़ों, जंगलों के निर्जन देस में

और

लग कर गले एक एक पेड़ के

एक एक पहाड़ी के

ऐसे हिलक हिलक रोई

जैसे

अम्मा- बापू के न रहने के बाद

पहली बार

मायके की देहरी छू के लौटी

बिटिया।


 



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