इच्छा इक अंकुआई
इच्छा इक अंकुआई
चारों ओर पसरी निस्तब्धता की
जादुई छुअन से
जब
शांत होने लगती है
मन की तपन
तो
इच्छा होती है
काश!
एक बीज इस शांति का
बो पाते हम।
मशीनों की गड़गड़ाहट
वाहनों के शोर से कातर
अपने शहरों की माटी में,
एक टुकड़ा
इस चमकते नीले आकाश का
गर सी पाते हम
कैसेले धुंयें से।
काले हुए अपने शहरी आकाश के आंचल में
घोल पाते हम
चमकता हरा रंग
इन मांसल पत्तियों का
धूल धुयें से मटमैले हुए पेड़ों की बाहों में।
एक मुट्ठी
इस स्वच्छंद पवन की
मिला पाते गर
गगनचुम्बी इमारतों में कैद
पंखों की शूली चढ़ी हवा में।
गर रह पाती जिंदा, प्रकृति
आदमी की प्राणहीन उपलब्धियों के बीच,
हो पाता
एक समझौता
आदमी की महात्वाकांक्षा औ प्रकृति में,
तब....तब शायद
इतना कलुषित न हो पाता आदमी का मन
मशीनीकरण इस कदर हावी हो
न दे पाता
आदमी की जिंदगी को
यह खालीपन
रिक्तता औ सूनापन।