बचपन
बचपन
अपना बचपन ही सुहाना था,
स्कूल ना जाने का पेट दर्द ही बहाना था।
ना होती कभी थकान थी,
दोपहर में दोस्तों के साथ खेलने के लिए
तड़पती रहती जान थी,
घर लेट आने पर मां रहती सदा परेशान थी।
जात पात का ना ज्ञान था,
हर कोई रहता हम पर मेहरबान था,
इस दुनिया के तौर तरीको से अनजान था।
आज की सोच बुलाते हैं,
बचपन फिर से दोहराते हैं।
गुल्ली डंडा लाते हैं,
सबके साथ समय बिताते हैं।
कागज की किश्ती बनाते हैं,
उसको फिर से पानी मे चलाते हैं।
आज सब ग़म भूल जाते हैं,
बचपन के जैसे खुशनुमा जीवन बिताते हैं ।
जाति धर्म को भूल कर,
फिर से नए दोस्त बनाते हैं,
बचपन को फिर से दोहराते हैं।