अज़नबी से मुलाकात
अज़नबी से मुलाकात


एक रोज़ सुबह यूँही तन्हा बैठी थी
एक शख़्स मुझसे बात करना चाहता था
परिचय जाना तो एक कवि निकला
उसकी कविताएँ सुन मेरा हृदय पिघला
खुशी से चूर हो जब उसका नाम पढ़ा
कुछ पुराने घावों ने जैसे मेरे नैन भिगो दिए
रोका बहुत खुद को पर उन कविताओ ने मुझे रुकने न दिया
वो शख्स मुझसे बात करने की कोशिश कर रहा था
और मेरे जेहन में कुछ और ही चल रहा था
कुछ रोज़ बाद जब बातें शुरू हुई हमारी
दुनिया मुझे अलग सी लगने लगी सारी
रहता तो बहुत गंभीर सा था वो
कहता था यही पहचान है हमारी
उस रोज जब मिलना था उससे
नींद ने जैसे आंखों का पता छोड़ दिया था
उत्सुक उससे मिलने के लिए ये दिल मानो बावरा हो रखा था
वो मुलाक़ात का एहसास इन अल्फाज़ो में बयान न हो
वक़्त मानो रेत की तरह हाथों से निकल गया हो
उसे जब अलविदा कह लौट रही थी मैं
उसे पकड़ रोना चाहती थी वो दामन भिगोना चाहती थी
दुआ में चंद लम्हे खास खुदा और दे देता
पर बिछड़ कर मिलने की उम्मीद भी अच्छी थी!