औरत की नियति
औरत की नियति
औरत की नियति त्याग, बलिदान ही क्यों है ?
क्यों झुकना ही उसका, स्वभाव बन जाता है ?
सर्वशक्ति शक्ति की ज्ञाता होने पर भी धरा पर,
औरत को अपना प्रतिकार, ही क्यों नज़र आता है ?
बसाया ब्रह्मा के बाद जिस औरत ने धरती को
उसी दुनियां में औरत का ही, जन्म क्यों आता है ?
जिस औरत में बस बेटी बहू माता पत्नी ही है
उसका जीवन क्यों साहसी परिचय देने में जाता है ?
पर मुझे थोड़ी ख़ुशी है अब वक़्त बदलने लगा है
अब धीरे धीरे करके ही सही ये दम भरने लगा है।
चलों तनहा थोड़ा अँधेरा छटने लगा है बातों का
थोड़ा सही कुछ तो इन्साफ बटने लगा है रातों का।
यूँही ही द्रण संकल्प विश्वास से जो चलती रहेगी
एक दिन सारा पुरुष सम्मान करेगा इनकी बातों का।
