असुरक्षित परी
असुरक्षित परी
अंधेर में दुनिया मेरी
क्षत-विक्षत शरीर
कष्ट को नाप नहीं पा रही हूंँ
ढुंढ रही हूँ गुड्डा को,
न जाने कहाँ पड़ा होगा
टूटे हुए हाथ पावँ को लेकर
दो दिन से तडप रहा है भूख
प्यास से सुख रहा है गला
भुख तो मरती रही धीरे—धीरे
मगर
प्यासी आत्मा मेरी
बेचैन तेरी गोद के लिए
भर पेट खिलाया था तुने कल
बदल गया है
काँच के टुकड़ों में
इंतज़ार थोडे से उजाले का
कहाँ कैसे मिलुगीं तुझे
गुम गया है मुहूर्त मेरा
विश्वास किया था उसके प्रतिरूप का
फिर भी धोका तो मिला
बेबस शरीर
असहाय हाथ
धक्का नहीं दे सकती
खेल रहा है वो पिशाच
मुझे अपने पास ले जा माँ
तेरी फटी हूई आंचल के निचे
सुरक्षित मेरी पृथ्वी
वादा करती हूँ फिर कभी,
ना उड़ाऊँगी पतंग
ना भागुँगी तितली के पीछे।