असमंजस
असमंजस
असमंजस में पड़ी रही नारी,
क्या बनाये क्या खिलाये जो
सब्ज़ी लगे सबको प्यारी
अपने मन का करती नहीं
दूसरों पर लुटा रही थी ख़ुशियाँ सारी
पार्टी में क्या पहने साड़ी,
सूट,या लहंगा चाहें हो कितना भी भारी
सर से लेकर पाँव तक हर ऋँगार मेल खाता
सोचते रात निकल जाती थी सारी
बदलाव खुद में लायी और
सखियों को बना रही सशक्त नारी
अब औरों के साथ खुद के मन की
भी बनाती तरकारी
खुद से करती प्यार,
अब करती खुद के लिए ऋँगार
सखियों अब आयी असमंजस
छोड़ खुद फ़ैसले लेने की बारी।
